- वीर विनोद छाबड़ा
नाम शेख़ मुख़्तार। क़द
छह फुट दो इंच। मुंहांसों से भरा भद्दा रफ-टफ चेहरा-मोहरा। रिहाईश दिल्ली की जामा मस्जिद
के पास गली चूड़ी वालान। पिता रेलवे के पुलिस इंस्पेक्टर थे। चाहते थे कि बेटा भी उन्हीं
की तरह पुलिस इंस्पेक्टर बने। वो ठीक ही चाहते थे। बेटे में किसी भी एंगल से रोमांटिक
हीरो जैसे गुण नहीं थे। लेकिन इससे ठीक उल्ट बेटे को विश्वास था कि उसकी शख्सियत एक
सफल हीरो की माफ़िक है। क्या गज़ब का आत्मविश्वास था! और वो बंबई आ गया। उसके फौलादी
ज़िस्म को देख कर सबने उसे रिजेक्ट कर दिया। हीरो बनना चाहता है? कौन हीरोईन तेरे जैसे
सात फुटिया दिखने वाले के साथ खड़ी होना चाहेगी? और फिर जब तू बोलता
है तो तेरा मुंह भी ठीक से नहीं खुलता। रोमांटिक डायलॉग बोलता है तो हंसी आती है।
दाद देनी होगी कि दर-दर
दुत्कार मिलने के बावजूद यह शख्स घबराया नहीं। भाग्य ऐसे ही लोगों का साथ भी देता है।
१९३९ में महबूब खान ने उसे 'एक ही रास्ता' में ले लिया। इसमें
शेख़ मुख़्तार सहित तीन हीरो थे। इनमें एक तो आज के गोविंदा के पिता अरुण आहूजा भी थे।
फिल्म कामयाब रही। बावज़ूद इसके कि शेख़ रोमांस के लिए नहीं बने थे, दर्शकों ने लीक से
हटे चेहरे-मोहरे को पसंद किया। इसके बाद उन्होंने एक के बाद दर्जनों फिल्में की। महबूब
की 'रोटी' ने बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी के झंडे गाड़ दिए। सुप्रसिद्ध नृत्यांगना
सितारा देवी नायिका थी। उन्हें रोमांस करना तो आता नहीं था। उड़ते हुए हवाई जहाज को
गिरा कर नायिका को प्रसन्न किया।
शेख़ के शारीरिक शौष्ठव
और ऊंचाई को देख कर निर्माताओं को ऐतिहासिक और कास्ट्यूम फ़िल्में बनाने का ख्याल आया
- जैसे कृष्ण भक्त, शहंशाह बाबर, चंगेज़ खान और नूरजहां।
बाद में बी-ग्रेड फिल्मों के सम्राट बने। फिल्मों के नाम उनकी पर्सनाल्टी के दृष्टिगत
रखे गए - दादा, दारा, दिल्ली का दादा, रामू दादा,
बड़ा आदमी, उस्तादों के उस्ताद, हम सब चोर हैं,
उस्ताद पेड्रो, मिस्टर लंबू, मंगू दादा,
दो उस्ताद आदि। हैरानी होती है कि ग़ैर-हीरो की शक्ल के बावज़ूद उनकी जोड़ी उस दौर
के सबसे खूबसूरत नायिका बेगम पारा के साथ जमी थी। समीक्षक टिप्पणी करते थे- क्लासिक
केस ऑफ़ ब्यूटी एंड बीस्ट।
उस्ताद पेड्रो में
उन पर फिल्माये ये गाने बहुत प्रसिद्ध हुए थे - दिल का इंजन सीटी बजाये...नमस्ते डॉ
पारो हमको भी एक इंजेक्शन मारो... छोटे कद के मुकरी उन दिनों खूब पसंद किये जा रहे
थे। निर्माताओं को एक नया मसाला मिला। मि. लंबू के साथ मि.छोटू की जोड़ी उस्ताद पेड्रो,
बिरजू उस्ताद, स्मगलर और उमर क़ैद में जमा दी। शेख़ मुख़्तार के बारे में एक बार
शाहरुख़ खान ने कहा था कि अगर हम उनके दौर में पैदा हुए होते तो उनके सामने बच्चों जैसे
दिखते। वो ओरिजिनल लंबू थे।
जेब में पैसा आया तो
शेख़ मुख़्तार ने कुछ फिल्में भी प्रोड्यूस कीं। दादा, दारा, उस्ताद पैड्रो,
मि.लंबू, दो उस्ताद और नूरजहां। 'दो उस्ताद'
में राजकपूर उनके छोटे भाई थे जो बचपन में खोये और जवानी में चोर-उचक्के बने मिले।
खोया-पाया का हिट फार्मूला इसी फिल्म की देन है। एक और ख़ासियत यह थी कि फिल्म के आखिरी
सीन में शेख मुख़्तार ईश्वर को चैलेंज करते हैं - अगर सुबह तक मेरी पत्नी नहीं मिली
तो मिट्टी की बनी तेरी हर मूरत को तोड़ दूंगा। इसके ठीक पंद्रह साल बाद 'दीवार' में अमिताभ बच्चन ने
भी ईश्वर को कुछ ऐसी ही चुनौती दी।
शेख़ मुख़्तार ने प्रदीप
कुमार-मीना कुमारी-सोहराब मोदी के साथ भव्य 'नूरजहां' बना कर दूसरा के.आसिफ
बनना चाहा। बेइंतहा पैसा बहाया। बाजार से उधार लिया। आकंठ गले तक क़र्ज़ में डूब गए।
लेकिन फिल्म औंधे मुंह गिरी। जेब में फूटी कौड़ी नहीं रही। इधर कर्ज वापस मांगने वालों
और इनकमटैक्स वालों ने उठना-बैठना हराम कर दिया। पानी सर के ऊपर से निकलने लगा तो शेख़
मुख़्तार एक रात चुपके से 'नूरजहां' का एक प्रिंट लेकर पाकिस्तान भाग गए।
हालांकि उनका कहना
था कि वो यह सोच कर पाकिस्तान गए थे कि वहां से पैसा कमा कर अपना सारा कर्ज चुका दूंगा।
उस दौरान पाकिस्तान के राष्ट्रपति ज़िया-उल-हक़ थे। और ज़िया साहब सोहराब मोदी के बहुत
बड़े फैन थे। उन्होंने शेख़ मुख़्तार की मदद की। लेकिन इस बीच एक निर्माता ने कोर्ट से
'स्टे आर्डर' ले लिया कि भारतीय फिल्म रिलीज़ होने से पाकिस्तानी फिल्म इंडस्ट्री
के हितों का नुकसान होगा। कई महीनों की अदालती कार्यवाही के बाद शेख़ के हक़ में फैसला
हुआ। शेख साहब बहुत खुश खुश लाहोर से कराची लौट रहे थे कि उड़ान के दौरान उन्हें दिल
का दौरा पड़ा। उन्हें एयरपोर्ट से सीधा अस्पताल ले जाया गया। लेकिन तब तक देर हो चुकी
थी। दस दिन बाद 'नूरजहां' पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर रिलीज़ हुई और
बहुत कामयाब रही। लेकिन यह देखने के लिए शेख़ ज़िंदा नहीं थे। २४ दिसंबर १९१४ को जन्मे
शेख मुख़्तार ने १२ मई १९८० को इंतकाल फ़रमाया।
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Published in Navodaya Times dated 10 Dec 2016
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