-वीर विनोद छाबड़ा
सुखराम बहुत गरीब आदमी था। एक झोंपड़ी में ही उसकी दुनिया थी। मजदूरी करके पेट भरता
था। रोज़ कुआँ खोदो और पेट भरो। कभी कभी तो ऐसा भी होता था कि लगातार कई दिन तक कोई
काम नहीं मिलता था। जैसे तैसे अड़ोस पड़ोस से कुछ उधार लेकर पेट भरता था। लेकिन उसके
पड़ोसी भी उस जैसे ही थे। उन्हें भी काम नहीं मिलता था। तब उसे भूखे पेट ही सोना पड़ता
था। अपनी इस हालत के लिए ईश्वर को दोषी मानता था।
एक दिन सुखराम को बहुत ज़ोर की भूख लगी थी। पिछले कई दिन से कोई काम नहीं मिला था।
जेब में एक कौड़ी भी नहीं थी। तभी उसने देखा कि एक सेठ बहुत भारी संदूक उठा कर आ रहा
है। उसने सेठ से पूछा - अगर आपको मज़दूर की ज़रूरत हैं तो मेरी सेवाएं हाज़िर हैं।
सेठ ने कहा - ज़रूर।
और सुखराम ने वो संदूक अपने सर पर रख लिया।
गर्मी भयंकर थी। ज़मीन से आग निकल रही थी। सुखराम के पैर में जूते नहीं थे। उसके
पैर जल रहे थे। जब कभी कोई पेड़ दिखता तो उसकी छाया में थोड़ा विश्राम कर लेता था। और
फिर आगे की यात्रा शुरू करता। इससे सेठ को कोई परेशानी नहीं थी। इसी बहाने उसे भी थोड़ा
विश्राम मिल जाता था।
चलते चलते सुखराम ने शिकायत की - ईश्वर भी बहुत निर्दयी है। हम गरीबों को जूते
तक नहीं दिए।
तभी सुखराम ने देखा कि सामने से एक व्यक्ति आ रहा है। उसके पैर नहीं थे। लेकिन
फिर वो घिसट-घिसट कर चल रहा था।
सेठ ने सुखराम से कहा - देखो इस व्यक्ति को। इसके पैर नहीं हैं। तुमसे भी ज्यादा
दुखी है। टखनों पर कपड़ा लपेट कर जैसे-तैसे चल रहा है। मगर इसके लिए वो भगवान को दोष
नहीं दे रहा। याद रखो, भगवान किसी के भी घर दौलत नहीं बरसाते हैं। लेकिन मौका सबको बराबर का देते हैं।
जिसने इसका फायदा उठा लिया वो सुखी हो गया। ज्यादा की चाहत है तो ज्यादा मेहनत करो।
सुखराम पर सेठ के उपदेश का बहुत गहरा असर हुआ। उस दिन के बाद से उसने अपने हालात
के लिए ईश्वर को कोसना बंद कर दिया। अपनी क़ाबलियत के अनुसार ज्यादा से ज्यादा मेहनत
करनी शुरू कर दी। इससे उसकी बुद्धि भी कुशाग्र होती चली गयी। इसके बल पर वो उसने छोटा
सी परचून की दूकान खोल ली।
जल्दी ही उसकी गरीबी दूर हो गयी और वो संपन्न हो गया।
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नोट - हमने
बचपन में यह कहानी मां ने सुनाई थी।---
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