Monday, December 26, 2016

मेरा सुंदर सपना बीत गया

-वीर विनोद छाबड़ा
हमें वो दिन याद है जब हम टहलते हुए इलेक्ट्रॉनिक के एक नामी शो रूम में घुस जाया करते थे, नए आये आईटम देखने और परखने। उनकी विशेषताओं का विवरण एकत्र करते और और दाम पूछ कर बाहर निकल जाया करते थे। एक दिन हम शोरूम से बाहर निकलने को ही थे कि एक भद्र पुरुष ने हमें रोक लिया। वो उस शो रूम के मालिक थे - टंडन जी। हम डर गए थे। कहीं चोरी का इल्ज़ाम न लगा दे। इंसान का क्या भरोसा। लेकिन टंडन जी ने हमें विधिवत बैठाया। हमारी जान वापस आई।
इधर टंडन जी पूछ रहे थे। आप अक्सर आते हैं, दुकान का कोना-कोना खंगालते हैं। हर छोटे-बड़े आईटम का दाम पूछते हैं और खाली हाथ बाहर चले जाते हैं। कभी खरीदते नहीं देखा।
हमने सफाई दी। खरीदने की इच्छा तो बहुत होती है। लेकिन आईटम इतने महंगे होते हैं कि हिम्मत नहीं पड़ती। बजट भी तो होना चाहिए। जिस दिन आमदनी बढ़ेगी, खरीद भी लेंगे।
टंडन जी मुस्कुराये। देखने में आप सज्जन और ठीक-ठाक दिखते हो। आप काम कहां करते हो? सरकारी नौकरी हैं
हम थोड़ा सकपकाये। हां सरकारी ही समझिए। बिजली विभाग में....
टंडन जी ने बात पूरी नहीं होने दी। उठ कर गले लगा लिया। तो आप बिजली वाले हो! यार फिर फ़िक्र काहे की। बस आप आईटम पर हाथ रखो और एड्रेस बताओ। सामान अभी के अभी आपके घर पहुंचता है। ओ श्यामू ज़रा चा-शा, ठंडा-शंडा ले आ भाई।
हमने बहुतेरा समझाया कि अभी हम संकट में हैं। अगले महीने वेतनमान रिवाइज़ होने हैं।
लेकिन टंडन जी ने कोई कच्ची गोलियां नहीं खेलीं थी। अरे भाई पैसों की बात मैंने कब की? वो तो आते रहेंगे। फिर आप ठहरे बिजलीवाले। जब आपकी इच्छा हो देना।

यह तो अच्छा हुआ कि टंडन जी के इनकम टैक्स वाले मित्र आ गए और हमें भाग निकलने का मौका मिल गया। उसके बाद से हम लंबी मुद्दत तक टंडन जी के शो रूम के सामने से नहीं गुज़रे। जिस गली में तेरा घर हो साजना उस गली से हमें तो गुज़रना नहीं...। अगर कभी मजबूरी में गए भी तो भूल से भी डिपार्टमेंट का नाम नहीं बताया।
मक़सद बताने का यह है कि कितनी हनक थी अपने बिजली बोर्ड की। लोगों को कितना भरोसा होता था बिजली विभाग और उसके कर्मियों पर और उनकी आमदनी पर। चलती-फिरती कैश-लेस हुंडी थे। बिना पेमेंट किये जितना माल चाहो उठा लो। मगर हर घूरे के दिन बदलते हैं। बिजली वालों के भी बदले। बद से बद्दतर हुए। एक तो बिजली नहीं दोगे और ऊपर से सूखी रंगबाजी। कौन कब तक बर्दाश्त करेगा? एक दिन किसी ने पीट दिया। बस उस दिन के बाद से पिटने का मानो सिलसिला ही चल पड़ा। सब गवां दिया। शोहरत और इज़्ज़त सभी कुछ। बिजली विभाग का नाम लिया नहीं कि पड़ने लगी गालियां। फब्तियां कसने लगे। अरे ये लोग तो बाप को भी बिना घूस लिए कनेक्शन नहीं देते। ईएमआई पर सामान देने वालों ने भी खदेड़ दिया। कंटाप, लाठी-डंडों तक की नौबत आ गयी। बत्ती गुल होने पर अपने भी लथाड़ने लगे।

ऐसे ख़राब माहौल का शुरुआती दौर था वो। हम एक दिन अपने मेहमानों को लेकर सिनेमा देखने गए। बाहर हाऊसफुल का बोर्ड टंगा था। हम मैनेजर के कमरे में बिना आज्ञा लिए घुस गए। बिजली बोर्ड से हूं। चार टिकट चाहिए।
मैनेजर साहब ने एक क्षण के लिए हमें घूरा और फिर एकाएक एकदम गुस्से से फट फड़े। क्या कर लोगे? बत्ती कटवा दोगे! जाओ, कटवा दो। हमने जापान का जनरेटर लगवा लिया है।

मेहमानों के सामने हमारी फ़ज़ीहत हो गयी। इज़्ज़त बचाने के लिए हमें दुगने दाम पर ब्लैक में टिकट खरीदना पड़ा था। उस दिन अपनी कुटिया लौटते ही हमने पहला काम यह किया था कि बिजली बोर्ड वाली नेमप्लेट हटा दी। लेकिन जानने वालों को कौन समझाये। कोई द्वार पर थूक गया, तो बाज़ कुत्ता टहलाऊ अपने डॉगी को पॉटी कराने लगे। 
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Published in Prabhat Khabar dated 26 Dec 2016
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