Sunday, May 1, 2016

ब्रेन वेव।

- वीर विनोद छाबड़ा
हमारे एक क्रांतिकारी मित्र को ब्रेनवेव बहुत आतीं थीं। पड़ोस में रहते थे। इसलिए फ़ोन करने की ज़हमत नहीं करते थे। सुबह-सुबह ही दरवाज़ा पीट दिया करते थे।

यों अच्छा ही करते थे। टेबल क्लॉक इतने घटिया क्वालिटी के होते थे कि उनका अलार्म ही नहीं बजता था। 
कभी-कभी तो सुबह चार बजे ही डिस्टर्ब कर दिया करते थे। सर्दियों के दिनों में रजाई से बाहर निकलना पड़ता था। न जाने क्या आफ़त आ गई है?
गुड मॉर्निंग करना तो छोड़िए, उन्हें इस बात का अफ़सोस भी नहीं होता था कि इतनी सुबह कड़कड़ाती ठंड में जगा दिया। वो तो अपनी धुन में होते थे। एक नया आईडिया आया है। मुल्क की तस्वीर ही बदल जायेगी देखना। पीएम को चिट्ठी लिख दी है।
दरअसल यह चिट्टी लिखने का आईडिया भी हमारा ही दिया हुआ था। लिखते रहो। कहीं न कहीं से रिस्पांस ज़रूर आएगा।
एक दिन उन्हें ब्रेनवेव आई कि सिनेमा देख कर बच्चे बर्बाद हो रहे रहे हैं। सिनेमाहाल बंद करके यहां कांजीहाउस खोल दिए जायें। महिलाओं को सरकारी नौकरी देना पैसे और वक़्त की बर्बादी है। गौमाता के गोबर से कंडे बनाने वालों को विशेष भत्ता दिया जाए। 
यह उस दौर की बात है जब टीवी ब्लैक एंड व्हाईट हुआ करते थे। चैनल और मल्टीप्लेक्स की कल्पना हसीन सपने में भी किसी ने न की होगी।
एक बार उनको गवर्नर साहब के कार्यालय से बुलावा भी आया था। वो गए भी थे। अपने विचार भी अभिव्यक्त करना चाहते थे। मगर लिखित बयान ले लिया गया। इसके आगे बात बढ़ी नहीं।

उन्हें यकीन था कि एक बार मौका मिले तो दुनिया बदल दूंगा। इसी तथ्य के दृष्टिगत उन्होंने उन्होंने अटल जी के विरुद्ध लोकसभा का चुनाव भी लड़ा। लेकिन बड़ी फ़ज़ीहत हुई।
अब वो इस दुनिया में नहीं हैं। हमें याद पड़ता है कि फेसबुक युग से पहले ही उनकी इहलीला समाप्त हो चुकी थी।
हमें यकीन है कि अगर वो आज होते तो अपने विचारों को फेसबुक के ज़रिये दुनिया के कोने कोने तक पहुंचा चुके होते। उनके विचारों से प्रभावित होकर भले ही कोई बड़ी क्रांति नहीं हुई होती, मगर यह ज़रूर पता चल जाता कि दुनिया में सिरफिरों की संख्या कितनी है।
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