-वीर विनोद छाबड़ा
मैंने ३३ साल सिगरेट पी है। ज़िंदगी का लंबा सफर इसके साथ तय किया। अब नहीं पीता।
लेकिन इसके साथ गुज़ारे अनेक दिलचस्प लम्हे याद आते हैं। मगर यह अजीब सा इतिफ़ाक़ है कि
मेरे पिता इन लम्हों में कई बार अहम किरदार बने। मैं जितना उनसे जितना दूर भागता रहा
वो हर मोड़ पर पहले से ही मौजूद मिले।
यह घटना १९७२ की है। उन दिनों मैंने मानसरोवर कला केंद्र नाम का एक थिएटर ग्रुप
ज्वाइन किया हुआ था। हम ‘मरीचिका' नाटक कर रहे थे। निर्देशक थे - प्रेम शंकर तिवारी उर्फ़ प्रेमजी ।
पर्दे के पीछे रहने के शौक के विपरीत इस बार मेरी भूमिका परदे के सामने थी। नई
पीढ़ी के बिगड़ैल अमीरज़ादे नवयुवक का किरदार। कुंठित सोच। आधुनिकता की अंधी दौड़ में अव्वल
आने मात्र से ही समाज बदल जाएगा और देश प्रगति की राह पर चल देगा।
मैंने कई बार प्रेमजी से इस किरदार को लेकर जिरह की कि सिगरेट के बिना भी तो इस
किरदार को बिगड़ैल दिखाया जा सकता है। मगर वो नहीं माने।
दरअसल मेरी प्रॉब्लम यह थी कि मुझे मालूम था आडियंस में पिताजी सहित मेरा पूरा
परिवार बैठा होगा। चरस, अफीम, गांजा। दम कोई मारे और पीछे से धुआं कोई उड़ाये। यह सब तो चल जाएगा। लेकिन सिगरेट
तो असली होगी। चलो चला लेंगे। सिगरेट सिर्फ़ सुलगती रहे।
लेकिन 'हमदोनों' के देवानंद स्टाईल से हर शोक को,
फ़िक्र को धूंए में उड़ाना। 'मधुमती' के प्राण की तरह मुंह
से धुंए के छल्ले उड़ाना। यह सब तो असली होगा न। वो भी पिताजी के सामने! यह सब कैसे
करूंगा?
प्रेमजी ने मेरे भावों को पढ़ लिया। चढ़ा दिया झाड़ पर - स्टेज पर आप सिर्फ किरदार
हैं बस। उसमें घुस जाना है। अपना वज़ूद भूल जाना है। इसी को कामयाबी कहते हैं। यही तुम्हें
ऊपर उठा कर ले जायगी, जहां एक नई दुनिया तुम्हारा इंतज़ार करती मिलेगी। आडियंस की ओर बिलकुल नहीं ताकना
है।
मैं भी नादां। इसी ब्रह्म वाक्य के सहारे मैंने स्टेज पर जमकर सिगरेट पी। भद्दे
शेरों के साथ मुंह से धूंए के सैकड़ों छल्ले निकाल कर हवा में फेंके। तालियों की गड़गड़ाहट
के साथ वंसमोर की आवाज़ें ऑडियंस से सुनाई दी। जोश में आकर रेस्पोंस भी दिया।
शो ख़त्म हुआ। लोग स्टेज पर चढ़ आये। कइयों ने पीठ थपथपाई। कौन-कौन था, सब तो याद नहीं। मगर
पिताजी का पीठ थपथपाना कभी नहीं भूला। साथ में उनकी टिप्पणी भी - सिगरेट पीने की अदा
पसंद आयी। खासतौर पर धुंए के छल्ले निकालना। तुम्हारी जितनी उम्र में मैंने भी बहुतेरी
कोशिश की थी। लेकिन कामयाब नहीं हो पाया।
मैं अच्छी तरह समझ रहा था कि वो मेरे सिगरेटबाज़ किरदार की प्रशंसा तो कर ही रहे
थे लेकिन साथ ही अंदर से कहीं दुखी भी रहे होंगे।
मेरी नौकरी तो थी नहीं। उन्हीं की कमाई पर घर चलता था। उस पर बेटा सिगरटेबाज़। बेटा
अच्छी राह चल पड़ा है। शर्मिंदा तो रहे होंगे।
मुझे याद
है कि जब मैंने पहली सिगरेट पी तो डर-डर कर कि पिताजी न देख लें। नौकरी की पहली पगार
मिली तो सबसे पहला काम यह किया कि खुद भी सिगरेट पी और दोस्तों को भी पिलाई। अबे पी
न यार, अपनी कमाई की है, डर काहे का। लेकिन वास्तव में मैं आगे-पीछे देख रहा था कि पिताजी
इधर से गुज़र तो नहीं रहे। और यह डर मुझे उनकी मृत्यु के बाद भी सताता रहा। सिगरेट सुलगाने
से पहले एक बार इधर-उधर देख ज़रूर लेता था - कहीं किसी रूप में आस-पास तो नहीं!---
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