Friday, May 27, 2016

कभी हिंदी पत्रकारिता को क्रिकेट से एलर्जी थी।

- वीर विनोद छाबड़ा
हमें याद है कि साठ के दशक में खेल समाचारों को न्यूज़ पेपर्स में बैक पेज पर जगह मिलती थी। अंग्रेजी वाले तो फिर बड़ी बड़ी हैडिंग लगाते थे।

लेकिन हिंदी के संपादकगण को बड़ी खुजली रहती थी स्पोर्ट्स के नाम पर। खासतौर पर क्रिकेट से तो परमानेंट बदहज़मी रहती थी। शायद इस कारण से कि यह अंग्रेज़ों का खेल है। हमें गुलाम बनाने वालों का खेल है। निक्कमे लोगों का खेल है। कहावत भी तो थी - पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगो-कूदोगे तो होगे ख़राब।
यों इतिहास भी यही बताता है कि सोलवीं शताब्दी में इसका उद्गम टाईम पास के तौर पर चरवाहों ने किया था। बाद में यह जुआड़ियों और नशेड़ियों का खेल बन गया। लेकिन यह इतना रुचिकर था कि राजघरानों की महिलाओं में छुप-छुप कर खेला जाने लगा।
इसमें इतनी बुराइयां थीं कि चर्च को हस्तक्षेप करना पड़ा। संडे के दिन खेलना प्रतिबंधित हो गया। ताकि लोग पूजा-पाठ कर सकें। सत्तर के दशक तक इंग्लैंड में संडे के दिन टेस्ट मैच नहीं खेले जाते थे।
हां तो हम बता रहे थे कि क्रिकेट फर्स्ट पेज की हेडलाइंस नहीं होता था। इसका कोई इतिहास अलग से हो तो पता नहीं। लेकिन हमने पहली बार इंडियन एक्सप्रेस के पहले पेज पर इसे पहली खबर के रूप में तब देखा जब इंडिया ने क्रिकेट के पितामह इंग्लैंड को १९६१-६२ सीरीज में २-० से हरा दिया था। कलकत्ता और मद्रास में हमने फतह हासिल की थी। उन दिनों कानपुर स्थाई टेस्ट सेंटर होता था। लेकिन अख़बार लखनऊ से निकलते थे - नेशनल हेराल्ड, दि पॉयनियर, स्वतंत्र भारत, नवजीवन और उर्दू का क़ौमी आवाज़। इतवार के रोज़ चार सफ़े का क्रिकेट स्पेशल छपा करता था। खूब बिक्री होती थी। हम पांचों अख़बार खरीदते थे। उर्दू का क़ौमी आवाज़ भी। गो हमें उर्दू नहीं आती थी। लेकिन खिलाड़ियों के चेहरे तो पहचानते ही थे। हम उन्हें बरसों तक बहुत सहेज कर रखे रहे।
ये और ऐसी ही बहुत सारी दस्तावेज़ी यादें मकान बदलने की प्रक्रिया में नष्ट हो गईं।
हां, तो बात हो रही थी हिंदी संपादकगण के क्रिकेट प्रेम की। सत्तर का दशक आते आते क्रिकेट की खबरें फ्रंट पेज पर जगह पाने लगीं। इसका श्रेय जाता है सुनील गावसकर और कपिल देव सरीखे इंटरनेशनल सनसनी बनने वाले खिलाड़ियों को।
१९८३ का एकदिनी विश्व कप जीतना भी एक टर्निंग पॉइंट रहा। हिंदी समाचार पत्रों को क्रिकेट की ताकत और इसके महत्व का पहली बार अंदाज़ा हुआ। साप्ताहिक हिंदुस्तान और धर्मयुग के तो पहले से आखिरी पेज तक जीत का खुमार छाया रहा।

मज़े की बात तो यह है कि इससे पहले हिंदी अख़बार वालों को तो छोड़ों आम भारतीय तक की एक दिनी क्रिकेट के बारे में समझ भी बहुत कम थी। वो दिन है और आज का दिन। दिहाड़ी करने वाले और भिखारी तक मैच का हाल जानने के लिए बेताब दिखते हैं।
२०११ का वर्ल्ड कप। हमें अच्छी तरह याद है कि जीत के जश्न मनाने सोनिया गांधी भी परिवार सहित दिल्ली की सड़कों पर भीड़ के साथ देर रात तक घूमती रही थीं। शायद ही कोई राजनेता बचा हो जिसने टीम इंडिया को बधाई न दी हो। इसमें गली-मोहल्ले के नेता भी शामिल थे।  
क्रिकेट खेल ही नहीं खिलाड़ियों को भी हिंदी पत्रकारिता सर-आंखों पर बैठाये घूमती है, कभी इसकी उपलब्धियों के लिए तो कभी इसकी बुराइयों के लिए। टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में चैनल मीडिया वाले तो एक से बढ़ कर स्कूप बनाते और खोजते घूमते हैं।
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