Sunday, May 15, 2016

शुरुआती दिन।

- वीर विनोद छाबड़ा
बात हमारी युवावस्था की है। उन दिनों हम अपने शहर लखनऊ के प्रसिद्ध दैनिक 'स्वतंत्र भारत' में सिर्फ सिनेमा पर लेख लिखा करते थे। हम गेट पर बैठे परिचर को लेख पकड़ा कर चल देते थे।

एक दिन परिचर वहां उपस्थित नहीं था। हम हिम्मत करके भीतर चले गए। एक कमरा दिखा। भीतर एक झाड़ की तरह उगी सफ़ेद -काली दाढ़ी वाले सज्जन एक किशोर को डांट रहे थे। 
वो हमारी ओर मुख़ातिब हुए और वहां पहले से मौजूद किशोर की ओर ईशारा करते हुए बोले - इनसे मिलिए। आप हैं, मशहूर लेखक मुंशी प्रेमचंद। 'ईदगाह' कहानी की हु-बहु नकल कर लाये हैं।
वो किशोर बार बार उनसे माफ़ी मांग रहा था। उन सज्जन ने उस किशोर को इस ताक़ीद के साथ भगा दिया कि दोबारा से यहां मत आना। फिर उन्होंने हमसे पूछा - हां तो तुम क्या लाये हो?
हमने कहा - साल भर की फिल्मों का लेखा-जोखा। हमारे कई लेख आपके अख़बार में छप चुके हैं।
यह हमने इसलिए बताया कि ताकि हम पहले ही स्पष्ट कर दें कि हम कोई महान लेखक नहीं हैं। 
उन्होंने हमारे हाथ से पांडुलिपि ली। सरसरी निगाह डाली। और लेख को हमारी ओर वापस फ़ेंक दिया। इसी विषय पर हमारे पास गिरधारी लाल पाहवा जी का लेख पहले से ही चुका है।
उन दिनों गिरधारी लाल पाहवा जी मशहूर पत्रकार हुआ करते थे। 
हम मायूस हुए। लेकिन हिम्मत नहीं हारी - लेकिन सर एक बार देख लीजिये। दोनों में जो अच्छा लगे छाप दीजियेगा।
उन्होंने आंखें तरेरी - जानते हो कितने सीनियर हैं पाहवा जी।
लेकिन हम टले नहीं। इतनी मेहनत से लिखा लेख यों ही कैसे बर्बाद जाने देते - सर मेरा भी थोड़ा अनुभव...
अचानक वो उबल पड़े - अनुभव! कितनी आयु है तुम्हारी? ज्यादा से ज्यादा १८ साल या फिर १९ साल....
और उसके बाद अगले तीस मिनट तक वो हमें डांटते हुए 'अनुभव' पर धाराप्रवाह प्रवचन देते रहे। और हम सन्न खड़े सुनते रहे। फिर उन्होंने हमें गेट आउट वाले अंदाज़ में कहा - जाईये।
हम लगभग रुआंसे हो गए। लेकिन जाने से पहले एक चांस और लिया - ठीक है सर, आप न छापें मगर एक बार पढ़ तो लें। बड़ी मेहनत की है। 
उन्हें हमारे रुआंसेपन पर तरस आ गया। हमारी पांडुलिपि के पृष्ठ फिर पलटे और बोले - अच्छा है। लेकिन पाहवा जी से हमने विशेषतौर पर लिखवाया है। तुम  नवजीवन में दे दो। वहां छप जाएगा।
हमें थोड़ी संतुष्टि मिली। हम फ़ौरन नवजीवन पहुंचे। गेट पर अपना लेख दिया और चल दिए। तीन दिन बाद रविवार के दिन हमारा लेख छप गया। मेहनत सफल हुई। लेकिन सबसे बड़ा सबक यह मिला कि किसी अनुभवी विद्वान के सामने अपनी विद्वता नहीं बखारनी चाहिए।
 
कई बरस गुज़र गए। इस दौरान हम उन सज्जन के मुरीद हो गए। कई मंचो पर उन्हें कई बार देखा और सुना। जब वो बोलते थे तो दूसरे की बोलने की हिम्मत भी नहीं होती थी।
एक दिन हमने उन्हें अपने घर में देखा। हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वो मेरे पिताजी से मिलने आये थे। हिंदी-उर्दू के रिश्तों के संबंध में बात चल निकली। वो करीब तीन घंटे रहे हमारे घर में। और इस दौरान सिर्फ वही बोलते रहे और हम मंत्र-मुग्ध सुनते रहे।
इन सज्जन का नाम था - श्री अखिलेश मिश्र। सुप्रसिद्ध संपादक, लेखक, समालोचक और मैथमैटिशियन। उनको इस दुनिया से प्रस्थान किये दस से ज्यादा साल हो चुके हैं। उनकी पुत्री वंदना मिश्र हैं, सुप्रसिद्ध पत्रकार और मानवाधिकार एक्टाविस्ट। और दामाद हैं प्रो. दीक्षित, पोलिटिकल साइंस के प्राध्यापक और सुप्रसिद्ध सोशल साइंटिस्ट। दोनों ही जेएनयू के छात्र रहे हैं।
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