- वीर विनोद छाबड़ा
हम अक्सर कहा करते
थे कि हमारे वज़ूद के गवाह चार लोग हैं। मेरे दो चाचा, मामा और बड़ी बहन। हम
हमेशा उनसे संपर्क बनाये रखते थे। ईश्वर से दुआ करते कि उनकी उम्र लंबी हो।
लेकिन अफ़सोस अब तीन
ही रह गए हैं। छोटे चाचा नंदलाल छाबड़ा गुज़र गए। ७९ साल के थे वो। दिल्ली में रहते थे।
हमें उनसे बहुत प्यार मिला। उन्होंने लखनऊ यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया था और रिज़र्व
बैंक ऑफ़ इंडिया में नौकरी की शुरुआत भी यहीं लखनऊ से।
हमारे परिवार के साथ
बहुत वक़्त गुज़ारा। मेरे मास्टर भी थे वो। दरअसल, हम स्कूल के दिनों
में एक मंदबुद्धि बालक हुआ करते थे। रोज़ शाम के वक़्त ट्यूशन पढ़ाने आ जाते। कभी-कभी
ठुकाई भी कर देते थे। मां कहती थी, एक थप्पड़ और दे।
हम न पढ़ने के बहाने
भी बहुत बनाते थे। लेकिन वो न छोड़ते थे। कहीं न कहीं से पकड़ लाते। कभी क्रिकेट के मैदान
से तो कभी कबड्डी खेलते हुए। १९६१ में उनकी शादी हो गई। इससे सबसे ज्यादा ख़ुशी हमें
हुई। वो चाची के साथ व्यस्त हो गए और हमें पढाई और ठुकाई से निजात मिली। लेकिन डर लगा
रहता था कि भूले-भटके फिर से ट्यूशन का भूत न सवार हो जाए। कुछ समय बाद वो दिल्ली शिफ़्ट
कर गए। ट्यूशन से परमानेंट आज़ादी मिली।
हमें एक घटना याद आती
है। साठ के दशक में गर्मी की छुट्टी मनाने दिल्ली गए। हम हाई स्कूल में पढ़ा करते थे।
एक शाम हम तैयार हुए। पाउडर-क्रीम लगाया। पतली मोहरी की पैंट का ज़माना था। कॉलर खड़ा
किया और चल दिए टहलने। सदर बाज़ार होते हुए चांदनी चौक तक गए। जब वापस लौटे तो नौ बज
रहा था। हमारी तलाश हर जगह हो चुकी। बस थाने में रपट बाकी थी। लेकिन जैसे ही हमारी
शोहदे जैसी शक्ल देखी तो चाचा कंट्रोल नहीं कर पाये और खींच कर एक झन्नाटेदार थप्पड़
रसीद कर दिया। अब उलटे चाचा को दादा जी डांट दिया। बच्चे की जान लोगे क्या?
हम काफी देर तक सुबकते रहे। खाना नहीं खाया। तब चाचा ने आकर हमें मनाया और अपने
हाथ से खाना खिलाया। उसके बाद से आज तक हमारा हाथ जब कभी गाल पर जाता है तो चाचा बरबस
याद आते हैं।
हमारे खानदान के इतिहास
में एकमात्र गऊ समान व्यक्ति वही थे। न मदिरा, न सिगरेट और कोई दुर्व्यसन।
चाय भी नहीं पिया करते थे। पिछले कई साल से घी-तेल और मिर्च मसाले रहित भोजन कर रहे
थे। लेकिन हम जब भी गए, बढ़िया भोजन कराया।
होमियोपैथी के अच्छे
जानकार थे। आसपास के निर्धन लोगों का नि:शुल्क उपचार करते थे और दवा भी मुफ़्त देते।
बहुत भावुक होने के साथ साथ दयालु भी थे। ज़रूरतमंदों की जब-तब रूपए पैसे से मदद की।
हमारे ऊपर भी जब-जब संकट आया, चाचा तन-मन-धन से साथ दिखे।
जब हम बड़े हुए तो उनसे
हमारा रिश्ता चाचा-भतीजे का नहीं रहा, बल्कि हम मित्र हो
गए। कहते थे कि पचास और पैंसठ में कोई फर्क नहीं होता है। हमने बहुत दुःख-सुख शेयर
किये। जब कभी उन्होंने हमें किसी मुद्दे पर सलाह दी तो हमें उनमें एक बड़े भाई के दर्शन
हुए।
अक्सर फोन से पूछते
थे कि कब आ रहे हो? हम उन्हें अपनी मजबूरी बता दिया करते थे। तब वो कहा करते अच्छा
मैं आता हूं। हम उन्हें बड़ी मुश्किल से रोकते थे कि अब आपका स्वास्थ ट्रेवल करने लायक
नहीं है।
उनके निधन की खबर सुनी
तो हमने खुद को बहुत व्यथित और टूटा हुआ पाया। थल और नभ हर जगह हाउसफुल। कैसे होंगे
दर्शन? तभी हमारे कज़िन ने फ़ोन किया - भैया सब इंतज़ाम हो गया है। लेकिन
अगली सुबह ने हमें गहरा धक्का दिया। ट्रेन दिल्ली पहुंची सुबह साढ़े ग्यारह बजे। चार
घंटे लेट। चित्त खिन्न हुआ। अब तक तक तो दाह-संस्कार हो भी चुका होगा। फ़ोन किया तो
पता चला कि चाचा की बेटी की लंदन फ्लाईट बारह बजे की है। क्रीमेशन चार बजे होगा। और
इस तरह चाचा के अंतिम दर्शन हमें नसीब हुए। इसीलिए कहते हैं कि सबसे बड़ा बलवान वक़्त
ही है।
पिछली बार हम उनसे
दिसंबर २०१३ में मिले थे। जब मैंने उन्हें बताया कि मैं फेस बुक पर एक्टिव हूं तो उन्होंने
भी अकाउंट खोल लिया। कहते थे सिर्फ़ तुम्हारे लेख पढ़ने के लिए ही फेसबुक पर आया हूं।
कभी-कभी मेरी किसी अच्छी पोस्ट पर भावुक हो जाते थे। फ़ौरन फ़ोन करते - बड़े भाई साहब
की याद गई है। कीप इट अप।
उनके निधन से हमने
एक चाचा ही नहीं खोया बल्कि एक बड़ा भाई, एक नेक दिल इंसान,
एक हितैषी, एक पाठक और एक फेसबुक मित्र भी खो दिया।
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26-05-2016 mob 7505663626
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