Tuesday, May 24, 2016

वो पहला दिन।

- वीर विनोद छाबड़ा
हमारे जीवन में २३ मई महत्वपूर्ण दिन है। इसी दिन १९७४ में हम यूपी स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के लखनऊ स्थित हैडक्वार्टर शक्ति भवन में ज्वाइन करने गए थे।
हमें आज भी याद है कि कुछ लोग हमको घूर-घूर कर देख रहे थे। मानों कोई नया पंछी फंसने आया है। हमारा दिल बुरी तरह धड़क रहा था। अजीब-अजीब से चेहरों वाले ऐलियन से दिखते अंजाने लोग। और चारों तरफ फाईलों के ऊंचे पहाड़। रैक्स में भी फाईलें ठूंसी हुई थीं। मोटी-मोटी धूल की परतें। कई बाबू लोग फाईलों में घुसे थे। उनके चारों और फ़ाइलों की मीनारें खड़ी थीं। अनेक अलमारियों भी थीं। न जाने क्या भरा था?

लेकिन ऑफिस एयर कंडीशन था। उस ज़माने में बड़े-बड़े घरों तक में एसी यंत्र नहीं थे। अब बत्ती विभाग था और ऊपर से बिजली की इफ़रात भी। वहां तो यह होना ही था। बहरहाल, हमने एक भले-मानुस से दिख रहे सज्जन को अपॉइंटमेंट लैटर दिखाते हुए पूछा कि हमें किससे मिलना होगा? उन्होंने एक बड़ी टेबुल की और ईशारा करते हुए बताया कि उधर सेक्शन ऑफ़िसर बैठे हैं।
हमने घूम कर उधर देखा। फाईलों का ढेर। और उसमें से उठता धुंआ। हम हैरान हुए कि बंदा तो कोई दिख नहीं रहा। भलेमानुस ने हमें पुश किया। और ईशारे से कहा जाओ तो। हम करीब पहुंचे। देखा एक क्षीण सी काया विराजमान थी। हड्डियों का ढांचा, जिस पर कुछ मांस चढ़ा दिया गया था। मुंह में सिगरेट लगी थी। धीरे-धीरे सुलग रही थी। धुआं कभी नाक से निकलता तो कभी मुंह से। रात का वक़्त होता तो हमारी चीख ही निकल जाती। वो फ़ाईल पर कुछ लिख रहे थे। बिना मुंह उठाये बैठने का ईशारा किया। हम बैठ गये। कुछ देर बाद उन्होंने लिखना बंद किया। बिना सर उठाये आवाज़ दी - लाजपत इनसे जॉइनिंग ले लो। अपने पास ही रख लोग और काम समझा दो।
तभी वही भलेमानुस लपक कर आये। अपने पीछे आने का ईशारा किया । जॉइनिंग लिखने को कहा। हमें कुछ भी जानकारी नहीं थी और न ही कागज़ है। वो भलेमानुस एकाएक रावण बन गरजने से लगे। एक कागज़ दिया। कहा, लिखो। हमारे पास पेन नहीं था। वो हैरान हुए। अमां नौकरी करने आये हो या घास छीलने? पेन दिया और डपट कर बोले, लिखो। वो बोलते गए और हम लिखते गए। हालांकि वो जिस वाक्य-विन्यास और बिना कामा-फुलस्टॉप बोले लिखवा रहे थे वो हमें बहुत विचित्र लग रहा था और हमें पसंद भी नहीं था। लेकिन हमारी मजबूरी थी।

जैसे-तैसे हमने जॉइनिंग लिखी। फिर उन्होंने हमें एक बड़े से रजिस्टर पर बैठा दिया। यह है सेंट्रल डिस्पैच रजिस्टर। खाकी लिफाफे दिए और साथ में ढेर चिट्ठियां। इन लिफ़ाफ़ों एड्रेस लिखो और इस रजिस्टर पर लिखो। सीरियल, लेटर नंबर और डेट, किसकी की तरफ से चिठ्ठी किसको जानी है। शाम तक हम यही करते रहे। हर आने-जाने वाला हमें घूर कर देखता और मुस्कुरा देता, जैसे हम आईटम गर्ल हों। दरअसल बहुत दिनों बाद कोई नया बंदा भर्ती हुआ था।
जब छुट्ठी हुई। तब तक हम निर्णय ले चुके थे कि यह हमारा पहला और आखिरी दिन है। लेकिन वहीं कार्यरत हमारे मित्र ने कहा बस दो दिन रुक जाओ। तब तक तुम्हारी तरह पंद्रह और नए लड़के भीजॉइनिंग देने आ जाएंगे। फिर बताना।
और वाकई अगले दिन सब सामान्य हो गया। हम अजनबी नहीं रहे। सब दोस्त  दिखने लगे। धीरे-धीरे हम नौकरी के जंजाल में फंस गए। आईएएस या पीसीएस  बनना सपना ही रह गया। चाह कर भी नहीं निकल पाये। मत जइयो नौकरिया छोड़ कर। ज़िंदगी भर की सिक्योरिटी देने वाली ऐसी नौकरी कहां पाओगे?
हमारी यह यात्रा तमाम उछाड़- पछाड़ और तूफानों से गुज़रती हुई ३१ दिसंबर २०१० को अंततः समाप्त हुई। हम बाबू पद पर भर्ती हुए और से डिप्टी जनरल मैनेजर के पद से रिटायर हुए।

हम जब कभी भी पीछे पलट कर देखते हैं, तो लगता है मानों कल की बात है। 
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