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वीर विनोद छाबड़ा
साठ के दशक की बात है। हमारे एक शिक्षक थे, बहुत दुबले-पतले थे
और छोटे कद के। लेकिन थे विनम्रता और सज्जनता की सजीव मूर्ति। उन्हें लोग प्यार से
गन्नू बाबू कहते थे।
कोई ड्रेस कोड था नहीं। गन्नू बाबू अगर छात्रों के बीच खड़े हों तो पहचानना मुश्किल
होता था।
प्रायः सभी शिक्षक समय से पूर्व आते थे। प्रार्थना सभा के दौरान आने वाले छात्रों
की पंक्ति अलग लगती थी। बाद में उनसे फ़ाईन वसूला जाता था। लेकिन शिक्षकगण आज़ाद थे।
एक दिन प्रार्थना समाप्त हुई तो सब हैरान हो गए। गन्नू बाबू विलंब से आने वाले
छात्रों की पंक्ति में खड़े थे । प्रिसिपल साहब ने उन्हें अपने कमरे में बुलाया - ये
क्या हिमाक़त है?
गन्नू बाबू ने कहा - अगर छात्रगण विलंब से आने पर दंडित किये जा सकते हैं तो हम
शिक्षक क्यों नहीं? हम उन्हें महापुरुषों का उदाहरण देते हैं, लेकिन खुद उन उदाहरणों
पर अमल नहीं करते। अगर हम अमल नहीं करेंगे तो दूसरों को क्या शिक्षा देंगे?
प्रिंसिपल साहब को गन्नू बाबू की बात में दम नज़र आया। दस पैसा फ़ाईन लगा दिया।
एक बार दोपहर में ज़ोर का आंधी-तूफ़ान आया और साथ में तेज बारिश भी। बत्ती चली गयी।
छात्रगण ऐसे मौसम का लुत्फ़ उठाने के लिए कमरों से बाहर निकल कर बरामदे में खड़े हो गए।
हंसी-मज़ाक भी चलने लगा। मोटे-ताजे और तंदरुस्त छात्रों ने दुबले-पतलों को कस कर पकड़
लिया कि कहीं उड़ न जायें। तभी किसी न कहा - अरे देखो, कहीं गन्नू बाबू न
उड़ गए हों?
तभी फ़ौरन जवाब भी आया - जिनके तुम जैसे बेटे हों तो किस आंधी-तूफ़ान की मज़ाल कि
मुझे उड़ा कर ले जाए?
यह गन्नू बाबू थे जो छात्रों के बीच में खड़े मौसम का लुत्फ़ उठा रहे थे।
गन्नू बाबू का असली नाम गिरजा प्रसाद श्रीवास्तव था। वो प्रसिद्ध इतिहासविद और
कवि योगेश प्रवीण के पिता थे। योगेश उनकी ज़िरॉक्स कॉपी हैं।
अब गन्नू बाबू कोई महापुरुष तो थे नहीं कि वो उदहारण स्वरुप इतिहास में दर्ज किये
जायें।
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