-वीर
विनोद छाबड़ा
हमारे
बहुत अच्छे पडोसी हैं प्रभुजी। अक्सर सुबह-सुबह आ धमकते हैं,
ठीक चाय बनने से पहले। बहाना होता है,
अख़बार देखने का या कोई चटपटी ब्रेकिंग न्यूज़। यों पुराने पत्नी
पीड़ित हैं। आज भी आये। पिछले कुछ महीनों से इंटरनेशनल मुद्दे उनकी ख़ास पसंद हैं।
स्वयं
को बहुत गौरवान्वित महसूस करते हैं। दुनिया की हर समस्या का हल चुटकी बजाते पेश कर
देते हैं। लेकिन अफ़सोस उनकी सुनता कोई नहीं। व्लादिमीर पुतिन और बराक ओबामा तो मानों
उनके लंगोटिया यार हैं। लेकिन प्रभुजी आज न
फ्रांस पर रुके और और न ईरान पर टिके। फटाफट नेशनल,
आईपीएल से होते हुए मोहल्ले पर आ गए। पल-पल में स्टेशन बदलते
रहे।
हमें
लगा कुछ खास शेयर करना चाह रहे हैं। लेकिन तनिक झिझक रहे है। संशय है कि प्रॉपर रिस्पांस
मिलेगा या नहीं।
इधर हम
भी आज असहज हैं। सुबह-सुबह मेमसाब से चिक-चिक हो गई। इसीलिए हम चाह रहे थे कि प्रभुजी
जल्दी से मूल मुद्दे पर आयें और फिर फ़ौरन से पेशतर दफ़ा हो जायें। हमें बस कोई अचूक
बहाने की तलाश थी कि प्रभुजी अचानक सब्जीमंडी पहुंच गए। अच्छा,
ये बताइये लौकी के बारे में आपके क्या विचार हैं?
हम पर
मानों पर बिजली आ गिरी। अभी कुछ पल पहले ये शख्स इंटरनेशनल रिलेशन पर बात कर रहा था।
वो एकाएक सब्जी-तरकारी जैसे लो लेवल के लोकल मुद्दे पर क्योंकर उतर आया?
बात समझ में नहीं आई। ये तो पहेली हो गई। हमें विश्वास हो गया
कि हो न हो प्रभुजी के घर में किसी की तबियत ख़राब है।
मगर प्रभुजी
ने तनिक झेंपते हुए खंडन किया। बिलकुल नही। बस ऐसे ही मन में ख्याल आया तो पूछ लिया।
हमने
गहरी सांस ली। कई बार पढ़ा है। ये बहुत ही गुणकारी है। हज़ारों साल से ऋषि-मुनि भी यही
खाते आ रहे हैं। सब्जी, रायता, हलवा,
पकौड़े, सब्ज़ी क्या-क्या नहीं बनता इसका। तमाम विधियां हैं बनाने की। लेकिन हमारे घर में
दो कारणों से बनती है। पहला, हमारी तबियत ख़राब हो और दूसरा मेमसाब नाराज़ हों। इसे खाने के अतिरिक्त कोई अन्य
विकल्प नहीं है। और आज यही बनेगी। मेमसाब का मूड जो ख़राब है।
ये सुनते
ही प्रभुजी उछल पड़े। यारा, मेरे घर में भी यही प्रॉब्लम है। इन फैक्ट,
मैं तो ये पूछने आया था कि तेरे घर कुछ अच्छा बना हो तो एक कटोरी
दे देना।
हमें
प्रभुजी की मौजूदगी अचानक अच्छी लगने लगी। यार ये बता,
तबियत ख़राब होने पर लौकी का बनना तो जायज़ है। मगर नाराज़ होने
पर ये सारी पत्नियां लौकी ही क्यों बनाती हैं?
ये कैसी सज़ा है? पत्नियां जान-बूझ कर नाराज़ होती हैं ताकि लौकी बनायें और पति की सेहत अच्छी रहे।
हमने
कहा - ठीक कहते हो। उस पर तुर्रा देखो। बाजार भरा पड़ा है लौकियों से। इन सब्ज़ी वालों
को भी मालूम है कि एक तिहाई पत्नियां हर समय नाराज़ रहती हैं।
इतने
में ठेलिया पर सब्ज़ी बेचने वाले की आवाज़ आती है - आलू,
टमाटर, मैथी, तुरई,
मिर्च ले लो.… लहसुन, प्याज़,
हरी धनिया, ताज़ी लौकी ले लो.…
हम और
प्रभु जी शीघ्रता से बाहर लपकते हैं। सब्ज़ी वाले को रोका और डपट दिया। अमां,
लौकी-लौकी की गुहार इतनी जोर से लगानी ज़रूरी है क्या?
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Published in Prabhat Khabar dated 30 May 2016
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