-वीर विनोद छाबड़ा
फिल्मों में प्रवेश
से पहले गुरूदत्त कलकत्ता की एक विदेशी कंपनी में टेलीफोन ऑपरेटर थे। १९४४ में उन्हें
पुणे की प्रभात फिल्म कंपनी में मनपसंद का काम मिला - नृत्य निर्देशक का। फिल्म का
नाम था - हम एक हैं। उन दिनों देवानंद भी स्ट्रगल कर रहे थे। प्रभात उन्हें इस फिल्म
में हीरो का ऑफर दे दिया।
उसी दौरान एक दिलचस्प
वाक़या हुआ। गुरू के कपडे जिस लांड्री में धुलते थे वहीं का लाभ देवानंद भी उठाया करते
थे। दोनों हम उम्र और कद काठी भी तकरीबन एक सी हुआ करती थी।
एक दिन क्या हुआ कि
देवानंद लांड्री पहुंचे। उन्हें अपनी अच्छी वाली शर्ट नहीं मिली। बल्कि उसके बदले एक
साधारण सी शर्ट दिखी। शूटिंग में देर हो रही थी। देव ने वही शर्ट पहनी और जल्दी से
शूटिंग पर पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि एक साहब उनकी जैसी शर्ट पहने पहले से मौजूद
हैं। करीब गए तो पाया यह उन्हीं की शर्ट है। स्पॉट ब्यॉय ने बताया उसका नाम गुरूदत्त
है और इस फिल्म के डांस डायरेक्टर भी यही है। बहुत ही साधारण शक्ल-सूरत के इंसान थे
गुरुदत्त। वेश-भूषा के मामले में भी बहुत सलीकेदार नहीं थे। जो मिला पहन लिया। यह सोच
कर कतई परेशान नहीं होते थे कि यह किसका है?
गुरू ने बिना झिझक
बताया - भाई, यह शर्ट मेरी नहीं है। आज सुबह लांड्री गया। जल्दी स्टूडियो
पहुंचना था। यह अच्छी लगी तो उठा ली। सोचा शाम को वापस कर दूंगा। अब अगर आप चाहें तो
अभी ले सकते हैं।
देवानंद गुरू के सादगी
और साफ़गोई पर फ़िदा हो गए। गुरू को गले लगाया और बोले - दिलचस्प आदमी हो। दोस्त, जब कभी मैं फ़िल्म कंपनी
बनाऊंगा तो पहली फिल्म के डायरेक्टर तुम्हें बनाऊंगा। गुरू ने भी छूटते ही वादा किया
- मैं भी जब पहली फिल्म प्रोड्यूस और डायरेक्ट करूंगा तो मेरे हीरो तुम होगे।
बात आई गयी हो गई।
फ़िल्म लाईन में ऐसे मज़ाक चला करते हैं। लेकिन गुरुदत्त और देवानंद में दोस्ती की मज़बूत
नींव ज़रूर पड़ गयी।
कई बरस गुज़र गए। पुणे
की प्रभात कंपनी बंद हो गई। गुरुदत्त और देवानंद बंबई आ गये। देवानंद की गाड़ी यहां
बढ़िया चलने लगी। जबकि गुरूदत्त गर्दिश के दिनों से बाहर नहीं निकले थे। वो उन दिनों
निर्देशक अमिया चक्रवर्ती और ज्ञान मुखर्जी के सहायक हुआ करते थे। कुछ दिनों बाद देवानंद
ने नवकेतन की नींव रखी। उन्हें गुरू को और उनसे किये वादे की याद आई। तुरंत गुरू तलाश
किया और 'बाज़ी' का डायरेक्शन सौंप दिया। इसके हीरो खुद देव
थे। हिंदी सिनेमा में अर्बन क्राइम थ्रिलर की शुरूआत इसी हुई मानी जाती है। इसी फिल्म
में गुरू ने १०० एमएम के लेंस के साथ क्लोज़ लेना शुरू किया। आगे चल कर यह इतना मशहूर
हुआ कि इसे गुरुदत्त शॉट कहा जाने लगा।
बाज़ी की कामयाबी के
बाद नवकेतन की अगली फिल्म 'जाल' भी गुरूदत्त ने ही डायरेक्ट की। इन दोनों फिल्मों में हीरो देवानंद
थे।
कुछ साल बाद गुरूदत्त
ने अपना प्रोडक्शन हॉउस स्थापित किया। लेकिन अपना वादा पूरा नहीं कर पाये। आर पार और
मिस्टर एंड मिसेस ५५ बनाई। पैसा बचाने के लिए खुद ही हीरो बन गए। फिर 'सीआईडी' प्लान की। उन्हें अपने
दोस्त देवानंद से किया वादा याद आया। लेकिन यह वादा अधूरा रहा। गुरू ने डायरेक्शन की
कमांड विश्वसनीय सहायक राज खोसला को सौंपी। इसकी बेमिसाल कामयाबी इतिहास है। इसके बाद
गुरूदत्त और देवानंद पर्दे पर कभी नहीं दिखे। दोनों ही अपने अपने काम में खोये रहे।
देवानंद से उलट गुरू
हर समय अवसाद में रहा करते थे। गुरू कहा करते थे - मेरे पास दौलत है। शोहरत कदम चूमती
है। कहने को सब कुछ है। मगर फिर भी लगता है कि खाली हूं।
देव अक्सर गुरू को
सलाह दिया करते थे - मत बनाया करो दुखांत फ़िल्में?
गुरू ने एक बार आत्महत्या
करने का प्रयास किया था। मगर ज़िंदगी और मौत के बीच देव आ गए। गुरू की याद में आयोजित
एक जलसे में गुरू की मां ने कहा था - मैंने उसे जन्म दिया लेकिन ज़िंदगी देवानंद ने
दी।
मगर देव की दी हुई
इस ज़िंदगी का गुरूदत्त फ़ायदा न उठा पाये। निजी ज़िंदगी की उथल-पुथल ने उन्हें स्लीप
डिसऑर्डर का शिकार बना दिया। और अंततः १० अक्टूबर १९६४ को आर पार, मिस्टर एंड मिसेस ५५,
कागज़ के फूल, चौदहवीं का चांद, साहिब बीवी और गुलाम,
प्यासा जैसी यादगार फ़िल्में देने वाले गुरूदत्त ने हैवी डोज़ ले लिया। नतीजा यह हुआ कि महज़ ३९ साल की
कम उम्र में उन्होंने विदा ले ली।
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Published in Navodaya Times dated 28 May 2016
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