- वीर विनोद छाबड़ा
फारेस रोड से लैमिंग्टन रोड तक का सफर यों तो महज़ पंद्रह मिनट का है, मगर मुझे यह फासला
तय करने में मेरे बारह साल खर्च हुए. यह बात भगवान दादा ने उस दिन कही थी जब वो सफलता
के शिखर पर पहुंचे थे.
मामूली मिल मजदूर पिता का यह बेटा भीषण संघर्ष और ऊंचे-ऊंचे तूफानों से झूझता हुआ
इस मुक़ाम पर पहुंचा था. मोटा थुलथुल जिस्म, चौड़ा चौखटा और ऊपर से छोटा
कद. चाल के लोग हंसते थे. दादा दिखते हो. एक्टर नहीं.
ज़िंदगी में किस्मत एक बार मेहरबान ज़रूर होती है. ज़रूरत होती है कैश करने की. छोटे-छोटे
स्टंट और मजाकिया रोल करके कुछ पैसा जुटाया. कबाड़ हो चुका जागृति स्टूडियो किराए पर
लिया. फिल्म बनाई- बहादुर किसान. स्पाट ब्याय से लेकर प्रोड्यूसर-डायरेक्टर और एक्टर
का काम खुद किया. १९३८ से लेकर १९५१ तक स्टंट व एक्शन और थोड़ा फूहड़ कॉमेडी तड़के वाली
करीब ५०-५५ लो बजट फ़िल्में बनायीं. दर्शक थे - चाल और झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने वाले
कामगार, मजदूर, मछुआरे और कामवाली बाईयां. लेकिन वक़्त की मार ने इन सभी फिल्मों को खत्म कर दिया.
इस दौर का भगवान दादा सिर्फ़ किस्सों में जिंदा है.
भगवान दादा के जुनून पर फ़िदा हो गए राज कपूर. सोशल फिल्में बनाने की सलाह दी. और
बन गई अलबेला (१९५१). फिल्म क्या बनी एक इतिहास ही रच डाला। सुपर-डुपर हिट। गीताबाली
के साथ भगवान खुद नायक - भोले-भाले प्यारेलाल। स्लोमोशन स्टेप डांस - शोला जो भड़के
दिल मेरा धड़के....और ओ भोली सूरत, दिल के खोटे, नाम बड़े और दर्शन छोटे... इधर परदे पर भगवान दादा नाचे और उधर
थिएटर में पब्लिक. उनके इन्हीं स्टेप्स को बाद में अभिताम बच्चन, मिथुन चक्रवर्ती
और गोविंदा ने परिमार्जित किया. दिलीप कुमार भी उनके स्टाइल में ठुमके लगाने से पीछे
नहीं रहे. दर्शक ओरीजनल को भूल कर नकलचियों में खो गये.
अलबेला की तर्ज पर झमेला, लाबेला और भला आदमी बनीं. लेकिन जादू न चला. सुपर-डुपर फ्लॉप.
लगातार तीन फ्लाप शो.
शुरू हुआ शिखर से शून्य का रिटर्न का सफ़र. स्टूडियो गया. समंदर को तकता बंगला डूबा.
अमीरों की शान इंपाला बिक गई. फिर उसी एक कमरे वाली चाल में वापस, जहां से चले थे.
भगवान दादा निराश जरूर थे, मगर टूटे नहीं. जुहू वाले बंगले में नींद नहीं आती थी. अब आराम
से अपने लोगों के बीच, अपने घर में खूब सोऊंगा.
अगले दिन से वही पुराना भगवान दादा, स्टूडियो-स्टूडियो काम की तलाश में भटकता हुआ. भाग्य का चक्र
देखिये. काम के लिये उनके पास गए जो कभी भगवान दादा के इर्द-गिर्द घूमते थे. छोटा-मोटा
जो भी रोल मिला लपक लिया. जब वो अपना चिर-परिचित स्लोमोशन स्टेप डांस करते हुए ठुमके
लगाते तो पब्लिक ख़ुशी से चीख उठती - वो देखो, अपना भगवान दादा. वो एक-दो
शाट वाले रोल के लिये भी डायरेक्टर को झुक कर तपाक से सेल्यूट मारते - थैंक्यू, आज की रोटी को
इंतज़ाम हुआ.
इस दौर में सिर्फ व्ही शांताराम की ‘झनक झनक पायल बाजे’ और राजकपूर की
‘चोरी चोरी’ ही यादगार बनीं. क़रीब ४०० सौ फिल्में कीं.
उम्र बढ़ रही थी। भगवान दादा को बुढ़ापे के तमाम रोगों ने आ घेरा और तिस पर ग़ुरबत.
पैरालिसिस ने उन्हें व्हील चेयर तक सीमित कर दिया. मिलने और मदद करने आये उनके पुराने
साथी ओम प्रकाश, सी० रामचंद्र और राजेंद्र कृष्ण. फिर एक-एक कर वो भी दुनिया छोड़ गए. भगवान दादा
तनहा हो गए. बिलकुल टूटे और हताश. सात बेटे-बेटियां
ने उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया. एक दिन जबरदस्त हार्ट अटैक आया. कोई अस्पताल ले जाने
वाला भी न मिला. ०४ फरवरी २००२ को ८९ साल की उम्र में आखिरी सांस ली. शून्य से शिखर
और फिर शिखर से शून्य तक का सफर ख़त्म हुआ. आखिरी सफर में सिनेमा से कोई नहीं. बस चाल
के कुछ लोग.
अब तो भगवान दादा को पहचानने वाली पीढ़ी भी विदाई की कगार पर है.
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Published in Navodaya Times dated 11 May 2016.
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