-वीर विनोद छाबड़ा
मुद्दत पहले की बात है। हमारे एक पड़ोसी हुआ करते थे। चंद्र दत्त
जोशी। हमसे उम्र में बहुत बड़े। बड़े महकमे के बड़े ओहदे से रिटायर हुए थे। हमेशा खामोश
देखा मैंने उन्हें। हमने सलाम किया तो हल्के से सर हिला कर जवाब दे दिया। सबको उपेक्षित
भाव से देखते थे। उनको कोई घमंडी कहता था तो कोई सिड़ी। वो चेहरे से भी खुश्क दिखते
थे। उनके घर न किसी को आते देखा, न जाते।
आमतौर पर खुश्क लोग भिखारियों तक को घर के पास फटकने नहीं देते
हैं। मगर उनके द्वारे से हमने भिखारियों को हमेशा बड़े खुश-खुश बिदा होते देखा। सबसे
ज्यादा भिखारी भी वहीं जाते देखे।
उनकी पत्नी और बच्चे कुछ भिन्न प्रजाति के थे। वो सबसे हंसते-बोलते
रहते। मगर पापा के बारे में लंबी चुप्पी मार जाते। हम श्योर हो गए कि ये शख्स जैसा
दिखता है, वैसा है नहीं। कुछ खोज-बीन करनी चाहिए।
एक दिन वो बीमार पड़े। अस्पताल में भर्ती हुए। उनके खुश्क मिज़ाज
के कारण आस-पड़ोस का कोई उनको देखने अस्पताल गया नहीं। लेकिन हम गए। दो कारणों से। एक
तो पड़ोसी होने के नाते हमारी उनसे दुआ सलाम थी। दूसरा, हमारा उसूल है कि दुश्मन की भी ख़ैर-सल्लाह पूछनी चाहिए।
हमें देख कर वो खुश हो गए। उनका हाल पूछा। वो उठ कर बैठे। बोले
- ये दुनिया बड़ी मतलबी है।
हमने कहा- ऐसा है भी और नहीं भी। आप अच्छी नज़र से देखें तो अच्छे
लोग भी मिलेंगे।
वो माने नहीं। हमें लगा वो ज़िद्दी हैं। कहीं गहरी चोट खाए हैं, इसलिए दुनिया का नेगेटिव नक्शा इनके मन मष्तिष्क पर छाया है।
फिर जोशी जी अचानक बोले - इस दुनिया में भिखारी सबसे अच्छे हैं।
इनके पास कुछ नहीं है। न घोडा, न गाड़ी और बंगला। लेकिन फिर भी हमेशा दुआएं ही देते हैं। आप
ज्यादा दें, कम दें या कुछ भी न दें। तब भी कहते हैं, भगवान भला करेगा, रक्षा करेगा। जबकि खाता-पीता
इंसान बिना मतलब के मुस्कुराता भी नहीं है। और ये नेता आपकी सेवा का वादा करते हैं।
आप क्या सोचते हैं, मुफ्त में सेवा करते हैं। मैं इसलिए वोट नहीं देता।
अस्पताल का टाइम ख़त्म हो रहा था। हम उठ खड़े हुए। बाहर निकले।
एक भिखारी ने हाथ बढ़ाया। हमने अपना उसूल तोड़ते हुए एक रुपया उसके हाथ में रख दिया, इस उम्मीद में कि शायद इसकी दुआ से जोशी जी अच्छे हो जायें।
अरसा हो चुका है। चंद्र दत्त जोशीजी अब इस दुनिया में नहीं हैं।
किसी भिखारी को हम देखते हैं तो जोशी जी की याद बेतरह चली आती है। ख्याल आता है कि
आज जोशी जी होते तो भिखारियों के प्रति उनकी धारणा कुछ फर्क हो जाती।
आज का भिखारी अब पहले जैसा नहीं रहा. अब वो 'चूज़ी' हो गया है। आदमी का पहनावा, उसकी चाल-ढाल से उसकी औकात का आंकलन करके वसूली करने के अंदाज़
में भीख मांगता है। साइकिल और पुराने स्कूटर सवार की ओर देखता तक नहीं। एक-दो रूपए
दो तो हिकारत से देखते हुए वापस कर देता है। मानो कहना चाहता है - इतना तो हमीं भीख
में दे दें। पांच दस रूपए से नीचे बात नहीं करते। जितना ज्यादा दो, उतनी ही दुआएं। नाखुश होने पर बद्दुआएं देते हैं।
हां, दुनिया के बारे में जोशीजी का नजरिया पहले ठीक नहीं था, क्योंकि दुनिया इतनी मतलबी नहीं थी। लेकिन, अब बिलकुल ठीक है। बिना मतलब कोई मुस्कुराता भी नही।
हमारे ख्याल से अपने दौर में जोशीजी वक़्त से आगे थे।
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