-वीर विनोद छाबड़ा
दो साल हो गए,
आसमान से पानी की एक बूंद नहीं टपकी है। किसान शंभू महतो के दो बीघे का खेत ज़मीदार
के पास गिरवी है। ज़मींदार ने धोखाधड़ी करके उसे बेदखल कर दिया। पुरखों की ज़मीन है। शंभू
तय करता है कि खूब मेहनत-मज़दूरी करेगा और क़र्ज़ अदा करेगा। वो कलकत्ता आता है। वहां
वो 'हाथे ताने रिक्शा' है यानी आदमी को आदमी खींचता है। ज़िंदगी इतनी आसान नहीं है।
हालात इतने विषम हो जाते हैं कि शंभू कुछ हासिल करने की बजाये सब कुछ गंवा बैठता है।
बिमल रॉय इस प्लाट
पर फिल्म बना रहे हैं - दो बीघा ज़मीन (१९५३). शंभू के चरित्र के लिए उन्हें किसी दुबले-पतले
परिश्रमी चेहरे की ज़रूरत है। ज़हन में कई एक्टर हैं। धार्मिक फिल्मों के त्रिलोक कपूर,
ऐतिहासिक फिल्मों के जयराज और दीन-हीन व रोनी सूरत वाले नज़ीर हुसैन। मगर बात कुछ
जमी नहीं।
एक दिन किसी ने बिमल
दा के सामने बलराज साहनी को खड़ा कर दिया। थिएटर के आदमी। कुछ फ़िल्में भी की थीं। बीबीसी
पर रहे थे और शांतिनिकेतन में प्रोफेसर थे। सूट-बूट के साथ टाई और फिर ऊपर से फर्र
फर्र अंग्रेज़ी। बिमल दा को जैसे करंट लग गया। लाटसाहब नहीं मेहनती मज़दूर चाहिए।
अगले दिन बलराज ने
रिक्शे वाले का मेक-अप किया। एक रिक्शा किराए पर लिया और बिमल दा के सामने खड़े हो गए।
हांफते हुए और पसीने से तरबतर। बिमल दा हैरान हो गए। अरे बाबा, यही आदमी चाहिए।
लेकिन कठिनाइयों का
दौर तो अभी प्रारंभ होना था। शूटिंग शुरू हुई। झुलसाने वाली गर्मी, तपती सड़क और नंगे पांव
बलराज 'हाथे ताने रिक्शा' खींचने के लिए तैयार
खड़े हैं।
बेतरह भागदौड़ वाला
शहर कलकत्ता। अगर पता चले कि शूटिंग चल रही है तो पूरे शहर की ज़िंदगी ठप्प। बिमल दा
ने इसीलिए चुपचाप प्लान बनाया। कार में कैमरा कुछ ऐसा छुपाया कि किसी की दृष्टि न पड़े।
'एक्शन' सुनते ही बलराज रिक्शा लेकर सरपट दौड़।
तभी एक भारी-भरकम आदमी
उन्हें रोकता है। पूरे अधिकार से रिक्शे पर बैठता है और बोलता है, फलां जगह चलो। लेकिन
यह तो स्क्रिप्ट का हिस्सा नहीं! मगर बिमल दा कट नहीं बोलते हैं। चलने दो। रीयल्टी
आएगा।
इधर बलराज ने रोल पाने
के लिए थोड़ा रिक्शा चलाया ज़रूर था, लेकिन कभी इंसान को बैठा कर नहीं खींचा था।
बहरहाल, उन्होंने आपत्ति नहीं की। वो रिक्शेवाले की खाल में घुस कर रिक्शेवाले
को मात देने पर उतारू हो गए। माथे, चेहरे और शरीर के हर हिस्से से चूता बेहिसाब
पसीना। बुरी तरह हांफ रहे हैं। थकान से टांगे कांप रही हैं। लेकिन बलराज रुकते नहीं
हैं। कलाकार पर चरित्र सवार है। गंतव्य पर पहुंच कर मोटा सेठ जेब से चंद निकालता है।
बलराज हथेली फैला देते हैं। वो उस राशि को देखते हैं। उनकी आंखों में चमक है। जीवन
में पहली बार पता चला कि यंत्रणा से गुज़रना क्या होता है। बलराज का सीना गर्व से फूल
गया। इधर कार में बैठे बिमल दा बोलते हैं - कट। बिमल दा बेहद खुश हैं। क्लासिक सीन
शूट किया है।
लेकिन अभी असली सीन
तो बाकी है। बलराज जैसे ही रिक्शा स्टैंड पर खड़ा करते है, कई रिक्शे वाले घेर
लेते हैं। बाहरी आदमी यहां रिक्शा नहीं खड़ा कर सकता। रोज़ी-रोटी पर डाका है यह।
बलराज भूल गए कि वो
एक्टर हैं। वो तो शंभू के चरित्र को आत्मसात कर चुके थे। पसड़ गए। अरे भाई तुम्हारी
तरह मैं परिश्रम करता हूं। दो रोटी कमाने आया हूं। लेकिन वे नहीं मानते। धक्कम-धक्का
शुरू हो गया। तभी यूनिट के लोग वहां पहुंच गए। उन्हें कार में छिपाया कैमरा दिखाया।
तब वे आश्वस्त हुए।
इधर बलराज साहनी की
भी तंद्रा टूटी। अरे भाई, मैं तो एक्टर हूं।
---
Published in Navodaya Times dated 14 May 2016
---
D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016
---
mob 7505663626
कल्पना और हकीकत का बेजोड़ संगम यह
ReplyDelete