Friday, May 6, 2016

अभी टाइम नहीं आया।

-वीर विनोद छाबड़ा
हमारे एक समाजसेवी मित्र हुआ करते हैं लल्लूजी।
ख़बर हुई कि फलां की तबियत नासाज़ है। फलां चाहे दूर का हो या नज़दीक का। चाहे दोस्त के पिता के दोस्त हों या उनकी सास। मिजाजपुर्सी करने पहुंच गए। न दिन देखा, न रात। तन-मन-धन से सेवाएं हाज़िर कर दीं। बोतल भर खून ऑफर किया करते हैं। लेकिन इतनी दयालु प्रवृति के बावज़ूद हर खास-ओ-आम उन्हें दूर रखना ही पसंद करता है।

दरअसल वो हर किसी से एक ही भाव से देखने जाते हैं - सोचा दर्शन कर लूं। जाने अब मुलाक़ात हो न हो.हमारी पत्नी की चाची के मौसेरे भाई के ससुर को ऐसी ही अस्थमा वाली प्रॉब्लम थी। भर्ती हुए। अगले दिन परलोक वासी हो गए.गठिया बहुत ख़राब बीमारी है। मेरे बॉस को भी थी। नहीं बचे वो भी.
उनकी बातें सुन सुन कर अगले दिन डिस्चार्ज हो रहा बंदा चार दिन और बिस्तर पकड़ लेता। एक तो कोमा से निकल कर फिर कोमा में लौट गया।
दुर्भाग्य कहिये या कर्मों का इसी जन्म में फल मिलना, लल्लूजी की भी बारी आ गयी। उन्हें लीवर में कुछ प्रॉब्लम थी। चूंकि उन्होंने बहुतों को जीते जी ऊपर पहुंचाया था लिहाज़ा पलटवार करने वालों को भी खूब मौका मिला। हम भी उन्हें देखने गए।
हमें देखते ही अवसाद में बहुत गहरे डूबे लल्लूजी भल-भल कर रोने लगा - अब मैं नहीं बचूंगा। मेरे बीवी-बच्चों का कौन ध्यान रखेगा?
जी में आया कि दो कंटाप धर दूं। साले, ज़िंदगी भर दूसरों को रुलाया है तुमने। आज खुद पे आई तो रो रहा है!
हम किसी तरह सब्र का घूंट पी गए। उन्हें सांत्वना दी। लेकिन वो थे कि चुप होने का नाम नहीं ले रहे थे। मेरे कंधे पे सर रख लिपट गए गए। उनकी पत्नी और बेटी भी वहीं पास ही बैठे थे। वे भी रुआंसे हो चले। हमने फिर कोशिश की। लेकिन वो चुप होने का नाम न लें। रुदन-क्रुदन बढ़ता ही चला गया। पूरा अस्पताल शोकमय हो गया। 
अब हमारे सब्र का बांध टूट गया। उन्हें जोर से डपट दिया- अबे चुप साले। तुम्हें कुछ नहीं हुआ। और यह बात बहुत अच्छी तरह जानते हो तुम। नौटंकी करता है। भाभी और इस नन्हीं बच्ची को परेशान करता है। याद है, मिजाज़-पुरसी के बहाने तूने कितनों को डिप्रेस किया है। उसके घर वालों के दिलों पे क्या गुज़री थी। 
हमारे इस तरह जोर से डांटने से लल्लूजी की घिग्घी बंध गयी। वो चुप हो कर दुबक से गए। उनकी स्थिति भीगी बिल्ली की मानिंद हो गयी। हमें अफ़सोस हुआ कि नाहक ही एक मरीज़ को इस तरह डांटा। हमने दिल से मुआफ़ी मांगी।
सहसा उनकी पत्नी और बेटी खूब ज़ोर-ज़ोर से खिलाखिला कर हंसने लगे। मैंने उनकी तरफ हैरानी से देखा।

उनकी बेटी बोली -अंकल, बहुत अच्छा किया। आज तक हम पापा की ही डांट सुनते आये हैं। आज पता चला कि पापा को भी कोई डांटने वाला है। मज़ा आ गया। रोज़ सुबह-शाम आकर डांट पिलाया करें। तभी ठीक होंगे।
ये सुनकर हमारी भी हंसी फूट पड़ी। और लल्लू जी की भी। 
मैंने उसे गले लगा लिया- ऊपर इकट्ठे चलेंगे दोस्त।
आज बीस बरस गुज़र चुके हैं। लल्लूजी आदत से बाज़ नहीं आये। बदस्तूर मिजाज़पुर्सी करने जाते हैं। लेकिन नेगेटिव बात नहीं करते। ढांढस बंधाते हैं। मुझे जब कभी मिलते हैं तो मैं पूछता हूं- कब चल रहे हो?
वो कहते हैं - अभी टाइम नहीं आया। बहुत काम बाकी है। फुरसत मिली तो सोचा जायेगा।
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